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तलब-ए-राह-ए-ख़ुदा में लेकिनपैरवी हैदर-ए-कर्रार की है
सब कुछ ख़ुदा ने मुझ को दिया 'अर्श' बे-तलबदुख़्तर की आरज़ू न तमन्ना पिसर की है
तिरी तलब तेरी आरज़ू में नहीं मुझे होश ज़िंदगी काझुका हूँ यूँ तेरे आस्ताँ पर कि मुझ को एहसास-ए-सर नहीं है
पाक-बाज़ी अपनी पैग़ाम-ए-तलब थी इश्क़ मेंधो के दाग़-ए-तोहमत-ए-हस्ती सफ़र दरकार था
यास-ओ-उम्मीद यूँ रहीं राह-ए-तलब में साथ साथचार क़दम हटा दिया चार क़दम बढ़ा दिया
वो हैं इधर 'इताब में दिल है उधर अ’ज़ाब मेंज़ौक़-ए-तलब ने क्यूँ मुझे जल्वा-ए-इल्तिजा दिया
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