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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
शे'र
जिगर मुरादाबादी
शे'र
ख़ुदा रक्खे अजब कैफ़-ए-बहार-ए-कू-ए-जानाँ हैकि दिल है जल्वः-सामाँ तो नज़र जन्नत-ब-दामाँ है
अफ़क़र मोहानी
शे'र
शाख़-ए-गुल हिलती नहीं ये बुलबुलों को बाग़ मेंहाथ अपने के इशारे से बुलाती है बहार
मिर्ज़ा मज़हर जान-ए-जानाँ
शे'र
अगर ये सर्द-मेहरी तुज को आसाइश न सिखलातीतो क्यूँकर आफ़्ताब-ए-हुस्न की गर्मी में नींद आती
मिर्ज़ा मज़हर जान-ए-जानाँ
शे'र
मिरा जी जलता है उस बुलबुल-ए-बेकस की ग़ुर्बत परकि जिन ने आसरे पर गुल के छोड़ा आशियाँ अपना
मिर्ज़ा मज़हर जान-ए-जानाँ
शे'र
कहीं है आँख आ’शिक़ की कहीं दीदार-ए-जानाँ हैबहार-ए-हुस्न-इ-ताबाँ में तू ही तू है तू ही तू है
चौधरी दल्लू राम
शे'र
हम गिरफ़्तारों को अब क्या काम है गुलशन से लेकजी निकल जाता है जब सुनते हैं आती है बहार
मिर्ज़ा मज़हर जान-ए-जानाँ
शे'र
दुनिया के हर इक ग़म से बेहतर है ग़म-ए-जानाँसौ शम्अ' बुझा कर हम इक शम्अ' जला लेंगे
फ़ना निज़ामी कानपुरी
शे'र
ग़म-ए-जानाँ ग़म-ए-अय्याम के साँचे में ढलता हैकि इक ग़म दूसरे का चारागर है हम न कहते थे
वासिफ़ अली वासिफ़
शे'र
ग़म-ए-जानाँ ग़म-ए-अय्याम के साँचे में ढलता हैकि इक ग़म दूसरे का चारागर है हम न कहते थे