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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
शे'र
हज़ार रंग-ए-ज़माना बदले हज़ार दौर-ए-नशात आएजो बुझ चुका है हवा-ए-ग़म से चराग़ फिर वो जला नहीं है
अफ़क़र मोहानी
शे'र
इम्दाद अ'ली उ'ल्वी
शे'र
बहार आई है गुलशन में वही फिर रंग-ए-महफ़िल हैकिसी जा ख़ंदा-ए-गुल है कहीं शोर-ए-अ’नादिल है
शम्स फ़िरंगी महल्ली
शे'र
बहार आई है गुलशन में वही फिर रंग-ए-महफ़िल हैकिसी जा ख़ंदा-ए-गुल है कहीं शोर-ए-अ’नादिल है
शम्स फ़िरंगी महल्ली
शे'र
पी भी लूँ आँसू तो आख़िर रंग-ए-रुख़ को क्या करूँसोज़-ए-ग़म को क्या किसी उनवाँ छुपा सकता हूँ मैं
कामिल शत्तारी
शे'र
हम ऐसे ग़र्क़-ए-दरिया-ए-गुन: जन्नत में जा निकलेतवान-ए-लत्मः-ए-मौज-ए-शफ़ाअत हो तो ऐसी हो
आसी गाज़ीपुरी
शे'र
ख़ुदा का शुक्र है प्यासे को दरिया याद करता हैमुसाफ़िर ने फ़राहम कर लिया है कूच का सामाँ