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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
शे'र
मेरी आँख बंद थी जब तलक वो नज़र में नूर-ए-जमाल थाखुली आँख तो ना ख़बर रही कि वो ख़्वाब था कि ख़्याल था
बहादुर शाह ज़फ़र
शे'र
बाग़-ए-जहाँ के गुल हैं या ख़ार हैं तो हम हैंगर यार हैं तो हम हैं अग़्यार हैं तो हम हैं
ख़्वाजा मीर दर्द
शे'र
मुज़्तर ख़ैराबादी
शे'र
नौ ख़त तो हज़ारों हैं गुलिस्तान-ए-जहाँ मेंहै साफ़ तो यूँ तुझ सा नुमूदार कहाँ है