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जिगर मुरादाबादी
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निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
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महकने को गुल-ए-दाग़-ए-मोहब्बत दिल में है अपनेखटकने को है ख़ार-ए-हसरत-ए-दीदार आँखों में
कैफ़ी हैदराबादी
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उ’मूमन ख़ाना-ए-दिल में मोहब्बत आ ही जाती हैख़ुदी ख़ुद-ए’तिमादी में बदल जाये तो बंदों को
फ़क़ीर क़ादरी
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जिस्म का रेशा रेशा मचले दर्द-ए-मोहब्बत फ़ाश करेइ’शक में 'काविश' ख़ामोशी तो सुख़नवरी से मुश्किल है
अब्दुल हादी काविश
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मोहब्बत ख़ौफ़-ए-रुस्वाई का बाइ'स बन ही जाती हैतरीक़-ए-इश्क़ में अपनों से पर्दा हो ही जाता है
मुज़्तर ख़ैराबादी
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ये आदाब-ए-मोहब्बत है तिरे क़दमों पे सर रख दूँये तेरी इक अदा है फेर कर मुँह मुस्कुरा देना
अब्दुल हादी काविश
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ख़ुदा-या ख़ैर करना नब्ज़ बीमार-ए-मोहब्बत कीकई दिन से बहुत बरहम मिज़ाज-ए-ना-तवानी है
जिगर मुरादाबादी
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तिरी आमादगी क़ातिल तबस्सुम है मोहब्बत कातवज्जोह गर नहीं मुज़्मर तो क़स्द-ए-इम्तिहाँ क्यूँ हो
मयकश अकबराबादी
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बला के रंज-ओ-ग़म दरपेश हैं राह-ए-मोहब्बत मेंहमारी मंज़िल-ए-दिल तक हमें अल्लाह पहुँचाए