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शे'र
कूचे में तिरे ऐ जान-ए-ग़ज़ल ये राज़ खुला हम पर आ करग़म भी तो इनायत है तेरी हम ग़म का मुदावा भूल गए
अब्दुल हादी काविश
शे'र
इ'श्क़ में तेरे गुल खा कर जान अपनी दी है 'नसीर' ने आहइस के सर-ए-मरक़द पर गुल रोला कोई दोना फूलों का
शाह नसीर
शे'र
अगर ये सर्द-मेहरी तुज को आसाइश न सिखलातीतो क्यूँकर आफ़्ताब-ए-हुस्न की गर्मी में नींद आती
मिर्ज़ा मज़हर जान-ए-जानाँ
शे'र
हम गिरफ़्तारों को अब क्या काम है गुलशन से लेकजी निकल जाता है जब सुनते हैं आती है बहार
मिर्ज़ा मज़हर जान-ए-जानाँ
शे'र
शाख़-ए-गुल हिलती नहीं ये बुलबुलों को बाग़ मेंहाथ अपने के इशारे से बुलाती है बहार
मिर्ज़ा मज़हर जान-ए-जानाँ
शे'र
मिरा जी जलता है उस बुलबुल-ए-बेकस की ग़ुर्बत परकि जिन ने आसरे पर गुल के छोड़ा आशियाँ अपना