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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
शे'र
जगा कर ख़्वाब-ए-आसाइश से 'बेदार' आह हस्ती मेंअ’दम-आसूदगाँ को ला के डाला है तबाही में
मीर मोहम्मद बेदार
शे'र
हवस जो दिल में गुज़रे है कहूँ क्या आह मैं तुम कोयही आता है जी में बन के बाम्हन आज तो यारो
नज़ीर अकबराबादी
शे'र
इ'श्क़ में तेरे गुल खा कर जान अपनी दी है 'नसीर' ने आहइस के सर-ए-मरक़द पर गुल रोला कोई दोना फूलों का
शाह नसीर
शे'र
न पूछो बे-नियाज़ी आह तर्ज़-ए-इम्तिहाँ देखोमिलाई ख़ाक में हँस हँस के मेरी आबरू बरसों