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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
शे'र
न क़ुर्ब-ए-गुल की ताब थी न हिज्र-ए-गुल में चैन थाचमन चमन फिरे हम अपना आशियाँ लिए हुए
बेदम शाह वारसी
शे'र
क्या इन आहों से शब-ए-ग़म मुख़्तसर हो जाए गीये सह सेहर होने की बातें हैं सेहर हो जाए गी