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निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ पर
अकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
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हिज्र के आलाम से छूटूं ये क़िस्मत में नहीं
मौत भी आने का गर वा’दा करे बावर ना हो
रज़ा फ़िरंगी महल्ली
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कहियो ऐ क़ासिद पयाम उस को कि तेरे हिज्र से
जाँ-ब-लब पहुँचा नहीं आता है तू याँ अब तलक
ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़
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न क़ुर्ब-ए-गुल की ताब थी न हिज्र-ए-गुल में चैन था
चमन चमन फिरे हम अपना आशियाँ लिए हुए
बेदम शाह वारसी
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जल ही गया फ़िराक़ तू आतिश से हिज्र की
आँखों में मिरी रह न सका यारो इंतिज़ार
ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़
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हिज्र की जो मुसीबतें अ’र्ज़ कीं उस के सामने
नाज़-ओ-अदा से मुस्कुरा कहने लगा जो हो सो हो
शाह नियाज़ अहमद बरेलवी
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मुझे इ’श्क़ ने ये पता दिया कि न हिज्र है न विसाल है
उसी ज़ात का मैं ज़ुहूर हूँ ये जमाल उसी का जमाल है
अज़ीज़ सफ़ीपुरी
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ख़ुदा रक्खे अजब कैफ़-ए-बहार-ए-कू-ए-जानाँ है
कि दिल है जल्वः-सामाँ तो नज़र जन्नत-ब-दामाँ है
अफ़क़र मोहानी
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हज़ार रंग-ए-ज़माना बदले हज़ार दौर-ए-नशात आए
जो बुझ चुका है हवा-ए-ग़म से चराग़ फिर वो जला नहीं है