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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
शे'र
बहुत ही ख़ैर गुज़री होते होते रह गई उस सेजिसे में ग़ैर समझा हूँ वो उन का पासबाँ होगा
रियाज़ ख़ैराबादी
शे'र
नूह का तूफ़ाँ तो कुछ दिन रह के आख़िर हो गयाऔर मिरी कश्ती अभी तक इश्क़ के दरिया में है
मुज़्तर ख़ैराबादी
शे'र
जुज़ तेरे नहीं ग़ैर को रह दिल के नगर मेंजब से कि तिरे इश्क़ का याँ नज़्म-ओ-नसक़ है