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निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
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सदा ही मेरी क़िस्मत जूँ सदा-ए-हल्क़ा-ए-दर हैअगर मैं घर में जाता हूँ तो वो बाहर निकलता है
अ’ब्दुल रहमान एहसान देहलवी
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कब दिमाग़ इतना कि कीजे जा के गुल-गश्त-ए-चमनऔर ही गुलज़ार अपने दिल के है गुलशन के बीच
मीर मोहम्मद बेदार
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जफ़ा की बातें सदा बनाना वफ़ा की बातें कभी न करनाख़ुदा के घर में कमी नहीं है किए में अपने कमी न करना
मुज़्तर ख़ैराबादी
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अकबर वारसी मेरठी
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ख़ुदा रक्खे अजब कैफ़-ए-बहार-ए-कू-ए-जानाँ हैकि दिल है जल्वः-सामाँ तो नज़र जन्नत-ब-दामाँ है
अफ़क़र मोहानी
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हज़ार रंग-ए-ज़माना बदले हज़ार दौर-ए-नशात आएजो बुझ चुका है हवा-ए-ग़म से चराग़ फिर वो जला नहीं है
अफ़क़र मोहानी
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जिगर मुरादाबादी
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शैदा-ए-रू-ए-गुल न हैं शैदा-ए-क़द्द-ए-सर्वसय्याद के शिकार हैं इस बोसताँ में हम