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जल ही गया फ़िराक़ तू आतिश से हिज्र कीआँखों में मिरी रह न सका यारो इंतिज़ार
ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़
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हिज्र के आलाम से छूटूं ये क़िस्मत में नहींमौत भी आने का गर वा’दा करे बावर ना हो
रज़ा फ़िरंगी महल्ली
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कहियो ऐ क़ासिद पयाम उस को कि तेरे हिज्र सेजाँ-ब-लब पहुँचा नहीं आता है तू याँ अब तलक
ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़
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हिज्र की जो मुसीबतें अ’र्ज़ कीं उस के सामनेनाज़-ओ-अदा से मुस्कुरा कहने लगा जो हो सो हो
शाह नियाज़ अहमद बरेलवी
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न क़ुर्ब-ए-गुल की ताब थी न हिज्र-ए-गुल में चैन थाचमन चमन फिरे हम अपना आशियाँ लिए हुए
बेदम शाह वारसी
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मुझे इ’श्क़ ने ये पता दिया कि न हिज्र है न विसाल हैउसी ज़ात का मैं ज़ुहूर हूँ ये जमाल उसी का जमाल है
अज़ीज़ सफ़ीपुरी
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बेदम शाह वारसी
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बेदम शाह वारसी
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इलाही रंग ये कब तक रहेगा हिज्र-ए-जानाँ मेंकि रोज़-ए-बे-दिली गुज़रा तो शाम-ए-इंतिज़ार आई
हसरत मोहानी
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शम्स साबरी
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जान जाती है चली देख के ये मौसम-ए-गुलहिज्र-ओ-फ़ुर्क़त का मिरी जान ये गुलफ़ाम नहीं