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है क्या ख़ौफ़ 'आरिफ़' को महशर के दिनवकालत पे जब पीर मुख़्तार हो
मर्दान-ए-ख़ुदा जो हैं वो हैं आरिफ़ बिल्लाहतफ़रीक़ नहीं में है कि कुछ पीर-ओ-जवाँ में
हर आँख को है तिरी तमन्नाहर दिल में तिरी ही आरज़ू है
अगर एक पल हो जुदाई तेरीतो सहरा मुझे सारा घर-बार हो
मिल गया है दिल किसी दीदार सेहो गया बेज़ार अब घर-बार से
जब दुई दिल से गई और दिलरुबा देखा अ'याँडाल कर गुल को गले में ख़ार की हाजत नहीं
ऐ सितमगर बेवफ़ा ये बेवफ़ाई कब तलकआशिक़ों की तेरे कूचे में दुहाई कब तलक
कूचा-ए-जानाँ में जाना है मुहालख़ौफ़ है उस संग-दिल खूँ-ख़्वार से
मेरा बख़्त-ए-ख़्वाबीदा बेदार होतेरा ख़्वाब में मुझ को दीदार हो
मैं हूँ बेचता धर्म-ओ-ईमान-ओ-दींंअगर कोई आ कर ख़रीदार हो
साहब-ए-तौहीद को तलवार की हाजत नहींज़ख़्मी-ए-मिज़्गाँ को कुछ सोफ़ार की हाजत नहीं
बराबर हैं गर पास हो गुल-बदनचमन हो कि जंगल चे गुलज़ार हो
कर दिया बर्बाद सारा इ'श्क़ ने जब ख़ानुमाँशहर में चर्चा मेरा फिर घर-ब-घर होने लगा
ख़ूब-रू ख़ुद आ मिले जब फिर किसी का ख़ौफ़ क्याये वो जादू है जिसे तस्ख़ीर की हाजत नहीं
वस्ल की शब हो चुकी रुख़्सत क़मर होने लगाआफ़ताब-ए-रोज़-ए-महशर जल्वः-गर होने लगा
जब नज़र उस की पड़ी हम आसमाँ से गिर पड़ेउस के फिरते ही जहाँ ये हम से सारा फिर गया
गर मिलूँ तो तुंद-ख़ू हो गालियाँ देते हो तुमदूर रहने से सताती है जुदाई आप की
दौलत-ए-इ’श्क़-ए-ख़ुदा हासिल हो गरकुछ नहीं अच्छा दिगर इस कार से
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