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‘नादिर’ फ़िराक़-ए-यार में मजनूं तो बन गयाख़ाना-बदोश बैठ कहीं तेरा घर भी है
तेरे वा'दों का ए'तिबार किसेगो कि हो ताब-ए-इंतिज़ार किसे
एक ईमान है बिसात अपनीन इबादत न कुछ रियाज़त है
लेकिन उस को असर ख़ुदा जानेन हुआ होगा या हुआ होगा
ढूँढते हैं आप से उस को परेशैख़ साहिब छोड़ घर, बाहर चले
नाला करना कि आह करनादिल में 'असर' उस के राह करना
कहूँ क्या ख़ुदा जानता है सनममोहब्बत तिरी अपना ईमान है
जान से हो गए बदन ख़ालीजिस तरफ़ तू ने आँख भर देखा
किधर की ख़ुशी कहाँ की शादीजब दिल से हवस ही सब उड़ा दी
कर के दिल को शिकार आँखों मेंघर करे है तो यार आँखों में
मानूस न था वो बुत कसो सेटुक राम किया ख़ुदा-ख़ुदा कर
क्या कहे वो कि सब हुवैदा हैशान तेरी तिरी किताब के बीच
न रहा इंतिज़ार भी ऐ यासहम उमीद-ए-विसाल रखते थे
उन बुतों के लिए ख़ुदा न करेदीन-ओ-दिल यूँ कोई भी खोता है
'असर' इन सुलूकों पे क्या लुत्फ़ हैफिर उस बे-मुरव्वत के घर जाइए
देखिए अब के ग़म से जी मेरान बचेगा बचेगा क्या होगा
ख़ुदा जाने क्या होगा अंजाम इस कामैं बे-सब्र इतना हूँ वो तुंद-ख़ू है
तेरे मुखड़े को यूँ तके है दिलचाँद के जों रहे चकोर लगा
गुलों की तरह चाक का ऐ बहारमुहय्या हर इक याँ गरेबान है
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