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नहीं खोलते आँख क्यूँ 'बेनज़ीर'वो आता है कोई उधर देखिये
क़ब्र पर दामन-कशाँ ही आओ आओ तो सहीफिर झटक देना हमारी ख़ाक-ए-दामन-गीर को
वही ज़ात-ए-मुतलक़ वही बे-नज़ीरवही शक्ल-ए-इंसाँ ख़ुदा है वही
ख़ुदा जाने था ख़्वाब में क्या समाँअरे दर्द-ए-दिल क्यूँ जगाया मुझे
ख़ुदा जाने वो जा रहे थे कहाँइधर भी निगाह-ए-करम हो गई
पहुँच जाती है किसी के गोश-ए-दिल तकहमारी आरज़ू इतनी कहाँ है
हर इक जिस्म में है वही बस ख़मोशहर आवाज़ में बोलता है वही
सितम करते मिल कर तो फिर लुत्फ़ थाजुदाई में क्या आज़माया मुझे
नहीं चलती कोई तदबीर ग़म मेंयही क्या कम है जो आँसू रवाँ है
तिरे घर में इस दर्जा छुप छुप के रोएकि शाहिद है एक एक को रोना हमारा
हमीं दैर-ओ-का'बा ख़ुदा-ओ-सनमहमीं साहब-ख़ाना घर भी हमीं
वाए क़िस्मत शम्अ' पूछे भी न परवानों की बातऔर बे-मिन्नत मिलें बोसे लब-ए-गुल-गीर को
रहे तू बरी ता-क़यूदात सेइसे बंद-ए-ग़म से रिहाई रहे
रहे वस्ल जब तक बक़ा से तुझेन उस की हमारी जुदाई रहे
किसी को तो ज़ाहिद को होती मोहब्बतबुतों की न होती ख़ुदा की तो होती
शब-ए-ग़म देखता हूँ उठ के हर बारवही है या कोई और आसमाँ है
रात-भर फिरता था कनआँ में ज़ुलेख़ा का ख़यालमिस्र को यूसुफ़ चले उस ख़्वाब की ता'बीर को
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