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चश्म नर्गिस बन गई है इश्तियाक़-ए-दीद मेंकौन कहता है कि गुलशन में तिरा चर्चा नहीं
मिरर्ज़ा फ़िदा अली शाह मनन
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नहीं लख़्त-ए-जिगर ये चश्म में फिरते कि मर्दुम नेचराग़ अब करके रौशन छोड़े हैं दो-चार पानी में
शाह नसीर
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अमीर मीनाई
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अमीर मीनाई
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चश्मः-ए-जारी खास्सः-ए-बारी गर्द-सवारी बाद-ए-बहारीआईना-दारी फ़ख़्र-ए-सिकन्दर सल्लल्लाहो अ’लैहे-वसल्लम
अमीर मीनाई
शे'र
जिलाया मार कर क़ातिल ने मैं इस क़त्ल के क़ुर्बांहुआ दाख़िल वो ख़ुद मुझ में मैं ऐसे दख़्ल के क़ुर्बां
मरदान सफ़ी
शे'र
तिश्ना-लब छोड़ा मुझे क़ातिल ने वक़्त-ए-इम्तिहाँरूह मेरी आब-ए-ख़ंजर को तरसती रह गई
मुज़्तर ख़ैराबादी
शे'र
जो अ’ज़्म-ए-क़त्ल है आँखों पे पट्टी बाँध ली क़ातिलमबादा तुझ को रहम आ जाए मेरी ना-तवानी पर
कौसर ख़ैराबादी
शे'र
फ़क़ीर-ए-‘कादरी’ जो देखते हैं चश्म-ए-बीना सेतो बंदे को ख़ुदा कहने की जुर्अत आ ही जाती है
फ़क़ीर क़ादरी
शे'र
उ’ज़्र कुछ मुझको नहीं क़ातिल तू बिस्मिल्लाह करसर ये हाज़िर है मगर एहसान मेरे सर न हो