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दश्त-नवर्दी के दौरान 'मुज़फ़्फ़र' सर पर धूप रहीजब से कश्ती में बैठे हैं रोज़ घटाएँ आती हैं
मुज़फ़्फ़र वारसी
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अब उस मंज़िल पे पहुँचा है किसी का बे-ख़ुद-ए-उल्फ़तजहाँ पर ज़िंदगी-ओ-मौत का एहसास यकसाँ है
अफ़क़र मोहानी
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शह-ए-बे-ख़ुदी ने अता किया मुझे अब लिबास-ए-बरहनगीन ख़िरद की बख़िया-गरी रही न जुनूँ की पर्दा-दरी रही
सिराज औरंगाबादी
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शम्स साबरी
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बा हम: ख़ूबरूईयम आ‘शिक़-ए-रू-ए-कीस्तमरुस्त: ज़े-दाम-ए-जिस्म-ओ-जाँ बस्त:-ए-मू-ए-कीस्तम
शाह नियाज़ अहमद बरेलवी
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वो तजल्ली जिस ने दश्त-ए-आरज़ू चमका दियाकुछ तो मेरे दिल में है और कुछ कफ़-ए-मूसा में है
मुज़्तर ख़ैराबादी
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बेदम शाह वारसी
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दीन-ओ-मज़हब से तिरे आशिक़ को अब क्या काम हैवो समझता ही नहीं क्या कुफ़्र क्या इस्लाम है