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कोई रश्क-ए-गुलिस्ताँ है तो कोई ग़ैरत-ए-गुलशनहुए क्या क्या हसीं गुलछर्रः पैदा आब-ओ-गिल से
शाह अकबर दानापूरी
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'इश्क़ वही तड़प वही हुस्न वही अदा वहीहुस्न की इब्तिदा वही 'इश्क़ की इंतिहा वही
शाह वलीउर्रहमान जमाली
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कब दिमाग़ इतना कि कीजे जा के गुल-गश्त-ए-चमनऔर ही गुलज़ार अपने दिल के है गुलशन के बीच
मीर मोहम्मद बेदार
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नहीं आती क़ज़ा मक़्तल में ख़ौफ़-ए-तेग़-ए-क़ातिल सेइलाही ख़ैर क्यूँ-कर दम तन-ए-बिस्मिल से निकलेगा
हशम लखनवी
शे'र
नहीं आती क़ज़ा मक़्तल में ख़ौफ़-ए-तेग़-ए-क़ातिल सेइलाही ख़ैर क्यूँ-कर दम तन-ए-बिस्मिल से निकलेगा
हशम लखनवी
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इतनी बात न बूझी लोगाँ आप निभाता करी सो कुएइ’ल्म क़ुदरत जिस थोरा होवे की मजबूर विचारा होए
शाह अली जीव गामधनी
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मुझे रास आएं ख़ुदा करे यही इश्तिबाह की साअ’तेंउन्हें ए’तबार-ए-वफ़ा तो है मुझे ए’तबार-ए-सितम नहीं