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शे'र
होश न था बे-होशी थी बे-होशी में फिर होश कहाँयाद रही ख़ामोशी थी जो भूल गए अफ़्साना था
बेदम शाह वारसी
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फ़ना बुलंदशहरी
शे'र
ऐ चारागर-ए-ख़ुश-फ़हम ज़रा कुछ अक़्ल की ले कुछ होश की लेबीमार-ए-मोहब्बत भी तुझ से नादान कहीं अच्छा होगा
कामिल शत्तारी
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शम्स साबरी
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कि ख़िरद की फ़ित्नागरी वही लुटे होश छा गई बे-ख़ुदीवो निगाह-ए-मस्त जहाँ उठी मिरा जाम-ए-ज़िंदगी भर गया
फ़ना बुलंदशहरी
शे'र
ख़िरद है मजबूर अक़्ल हैराँ पता कहीं होश का नहीं हैअभी से आलम है बे-ख़ुदी का अभी तो पर्दा उठा नहीं है
अफ़क़र मोहानी
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क़ैसर शाह वारसी
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बा-होश वही हैं दीवाने उल्फ़त में जो ऐसा करते हैंहर वक़्त उन्ही के जल्वों से ईमान का सौदा करते हैं
फ़ना बुलंदशहरी
शे'र
जिगर मुरादाबादी
शे'र
गुज़र जा मंज़िल-ए-एहसास की हद से भी ऐ 'अफ़्क़र'कमाल-ए-बे-खु़दी है बे-नियाज़-ए-होश हो जाना