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जाते जाते अर्सा-ए-गाह-ए-हश्र तक जो हाल होउठते उठते क़ब्र में सौ फ़ित्ना-ए-महशर उठे
रियाज़ ख़ैराबादी
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सामने मेरे ही वो जाते हैं बज़्म-ए-ग़ैर मेंअल-मदद ऐ ज़ब्त मुझ को कब तक उस का ग़म रहे
मिरर्ज़ा फ़िदा अली शाह मनन
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सीमाब अकबराबादी
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बाँद कर गुलनार चीरा गुल-बदन जाता है बाग़आज ख़ातिर में तिरे बुलबुल की मिस्मारी है क्या
तुराब अली दकनी
शे'र
इ’श्क़ असानूँ लिस्याँ जाता कर के आवे धाई हूजित वल वेखां इ’श्क़ दिसीवे ख़ाली जा न काई हू
सुल्तान बाहू
शे'र
मोहब्बत ख़ौफ़-ए-रुस्वाई का बाइ'स बन ही जाती हैतरीक़-ए-इश्क़ में अपनों से पर्दा हो ही जाता है
मुज़्तर ख़ैराबादी
शे'र
उ’मूमन ख़ाना-ए-दिल में मोहब्बत आ ही जाती हैख़ुदी ख़ुद-ए’तिमादी में बदल जाये तो बंदों को
फ़क़ीर क़ादरी
शे'र
जान जाती है चली देख के ये मौसम-ए-गुलहिज्र-ओ-फ़ुर्क़त का मिरी जान ये गुलफ़ाम नहीं