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शे'र
मक़्दूर क्या जो कह सुकूँ कुछ रम्ज़-ए-इ’श्क़ कोजूँ शम्अ' हूँ अगरचे सरापा ज़बान-ए-इ’श्क़
ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़
शे'र
ये कह कर ख़ाना-ए-तुर्बत से हम मय-कश निकल भागेवो घर क्या ख़ाक पत्थर है जहाँ शीशे नहीं रहते
मुज़्तर ख़ैराबादी
शे'र
मैं वो साफ़ ही न कह दूँ जो है फ़र्क़ मुझ में तुझ मेंतिरा दर्द दर्द-ए-तन्हा मिरा ग़म ग़म-ए-ज़माना
जिगर मुरादाबादी
शे'र
मुज़्तर ख़ैराबादी
शे'र
कह दिया फ़िरऔ’न ने भी मैं ख़ुदा कर के ख़ुदीहो के बे-ख़ुद जब कहे इंकार की हाजत नहीं
किशन सिंह आरिफ़
शे'र
मैं हाथ में हूँ बाद के मानिंद पर-ए-काहपाबंद न घर का हूँ न मुश्ताक़ सफ़र का
ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़
शे'र
दु’आ कह कर चला बंदा सलाम आ कर करेगा फिरख़त आवे जब तलक तो बंदगी से ख़ूब जाता है
एहसनुल्लाह ख़ाँ बयान
शे'र
देख कर का'बे को ख़ाली मैं ये कह कर आ गयाऐसे घर को क्या करूँगा जिस के अंदर तू नहीं
मुज़्तर ख़ैराबादी
शे'र
इ’श्क़ में तेरे कोह-ए-ग़म सर पे लिया जो हो सो होऐ’श-ओ-निशात-ए-ज़िंदगी छोड़ दिया जो हो सो हो
शाह नियाज़ अहमद बरेलवी
शे'र
इ'श्क़ में तेरे कोह-ए-ग़म सर पे लिया जो हो सो होऐश-ओ-निशात-ए-ज़िंदगी छोड़ दिया जो हो सो हो