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रंज-ओ-ग़म में सिकुड़ना खेल समझे हो 'रशीद'चाहिए पत्थर का दिल सदमे उठाने के लिए
ऐ मियाँ गुल तो खिल चुके प कभूग़ुंचा-ए-दिल मिरा भी वा होगा
जों गुल तू हँसे है खिल-खिला करशबनम की तरह मुझे रुला कर
दीन-ओ-ईमाँ क्या और क्या है धरम खोल दिया अब तो नाम-ए-ख़ुदा ने भरमचश्म-ए-मुर्शिद ने की ऐसी जादूगरी कुछ भी मुझ को न भाए तो मैं क्या करूँ
खोल आँख अपनी देख अयाँ हक़ का नूर हैहर बर्ग व हर शजर में उसी का ज़ुहूर है
अगर हम तुम सलामत हैं कभी खुल जाएगी क़िस्मतइसी दौर-ए-लयाली में इसी गर्दूं के चक्कर में
आँख खोल दिखते 'काज़िम' काँउठ गरे लागो कँवर कन्हाई
आँखों आँखों ही में खुल जाते हैं लाखों असरारदर्स-ए-उल्फ़त के लिए हाजत-ए-उस्ताद नहीं
तुम आए रौशनी फैली हुआ दिन खुल गईं आँखेंअँधेरा सा अँधेरा छा रहा था बज़्म-ए-इम्काँ में
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