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रिंद हूँ ब-ख़ुदा मगर ‘बेख़ुद’ हूँ बे-ख़ुदा नहींतुम ही मेरे हो पेशवा या’नी कि ना-ख़ुदा भी तुम
बेख़ुद सुहरावरदी
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अज़ीज़ सफ़ीपुरी
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दिल फंसा कर ज़ुल्फ़ में ख़ुद है पशेमानी मुझेदह्र में ख़ल्क़-ए-ख़ुदा कहती है ज़िंदानी मुझे
सादिक़ लखनवी
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ख़ुदा शाहिद है इस शम्‘अ-ए-फ़रौज़ाँ की ज़िया तुम होमैं हरगिज़ ये नहीं कहता तुमहें मेरे ख़ुदा तुम हो
शाह तक़ी राज़ बरेलवी
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नहीं यारो ख़ुदा हरगिज़ तुम्हारे सुँ जुदा हैगाजिधर देखे उधर ममलू सदा नूर-ए-ख़ुदा हैगा
तुराब अली दकनी
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नहीं यारो ख़ुदा हरगिज़ तुम्हारे सुँ जुदा हैगाजिधर देखे उधर ममलू सदा नूर-ए-ख़ुदा हैगा
तुराब अली दकनी
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ब-रोज़-ए-हश्र हाकिम क़ादिर-ए-मुतलक़ ख़ुदा होगाफ़रिश्तों के लिखे और शैख़ की बातों से क्या होगा
हरी चंद अख़्तर
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अकबर वारसी मेरठी
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मुझे रास आएं ख़ुदा करे यही इश्तिबाह की साअ’तेंउन्हें ए’तबार-ए-वफ़ा तो है मुझे ए’तबार-ए-सितम नहीं