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मुज़्तर ख़ैराबादी
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ग़म-ए-फ़ुर्क़त है खाने को शब-ए-ग़म है तड़पने कोमिला है हम को वो जीना कि मरना इस को कहते हैं
राक़िम देहलवी
शे'र
उन को बुत समझा था या उन को ख़ुदा समझा था मैंहाँ बता दे ऐ जबीन-ए-शौक़ क्या समझा था मैं
बह्ज़ाद लखनवी
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उन को बुत समझा था या उन को ख़ुदा समझा था मैंहाँ बता दे ऐ जबीन-ए-शौक़ क्या समझा था मैं
बह्ज़ाद लखनवी
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शकील बदायूँनी
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कामिल शत्तारी
शे'र
लज़्ज़तें दीं ग़ाफ़िलों को क़ासिम-ए-हुशियार नेइ’श्क़ की क़िस्मत हुई दुनिया में ग़म खाने की तरह
ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़
शे'र
लज़्ज़तें दीं ग़ाफ़िलों को क़ासिम-ए-हुशियार नेइ’श्क़ की क़िस्मत हुई दुनिया में ग़म खाने की तरह
ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़
शे'र
मुझ से लगे हैं इ'श्क़ की अ'ज़्मत को चार चाँदख़ुद हुस्न को गवाह किए जा रहा हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
शे'र
आ'शिक़-ए-जाँ-निसार को ख़ौफ़ नहीं है मर्ग कातेरी तरफ़ से ऐ सनम जौर-ओ-जफ़ा जो हो सो हो
मीर मोहम्मद बेदार
शे'र
मक़्दूर क्या जो कह सुकूँ कुछ रम्ज़-ए-इ’श्क़ कोजूँ शम्अ' हूँ अगरचे सरापा ज़बान-ए-इ’श्क़