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गर तू अफ़लातून-ओ-लुक़मानी ब-इ'ल्ममन ब-यक दीदार नादानत कुनम
फ़ुर्क़त में तिरे ग़म-ओ-अलम नेतन्हा मुझे पा के मार डाला
बाग़-ए-आ’लम में हमें फूलने-फलने न दियाआसमाँ ने कोई अरमाँ निकलने न दिया
दिलों को फ़िक्र-ए-दो-आलम से कर दिया आज़ादतिरे जुनूँ का ख़ुदा सिलसिला दराज़ करे
गुलशन-ए-आ'लम की मैं ने डाली-डाली देख लीफूल तो अच्छे हैं सब लेकिन वफ़ा की बू नहीं
अहल-ए-आ’लम कहते हैं जस को शहंशाह-ए-सुख़नमैं भी हूँ शागिर्द 'कौसर' अस जगत उस्ताद का
मैं हमेशा असीर-ए-अलम ही रहा मिरे दिल में सदा तेरा ग़म ही रहामिरा नख़्ल-ए-उम्मीद क़लम ही रहा मेरे रोने का कोई समर न मिला
तिरे ग़म को दुनिया में ऐ जान-ए-आ’लमकोई रूह महरूम-ए-राहत नहीं है
कमाल-ए-इ’ल्म-ओ-तहक़ीक़-ए-मुकम्मल का ये हासिल हैतिरा इदराक मुश्किल था तिरा इदराक मुश्किल है
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