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लगते हैं ये मेहर-ओ-माह-ओ-अंजुमदेहली के चराग़ ही का परतव
मिरे माह-ए-मुनव्वर तेरे आगेचराग़-ए-दैर क्या शम-ए’-हरम क्या
वो उ’रूज-ए-माह वो चाँदनी वो ख़मोश रात वो बे-ख़ुदीवो तसव्वुरात की सरख़ुशी तिरे साथ राज़-ओ-नियाज़ में
क्या मह-ओ-मेहर क्या गुल-ओ-लालाजब मैं देखा तो जल्वः-गर तू है
और किसी का नूर है उस मह-ए-दिल-नवाज़ मेंअ’क्स को देख बे-ख़बर आईना-ए-मजाज़ में
यहाँ से 'बेदार' गया वो मह-ए-ताबाँ शायदनज़र आता है ये घर आज तो बे-नूर हमें
शब-ए-फ़ुर्क़त भी जगमगा उट्ठीअश्क-ए-ग़म हैं कि माह-पारे हैं
लेके दिल में मोहब्बत की पाकीज़गी घर से निकले थे दैर-ओ-हरम के लिएहम जुनूँ में न जाने कहाँ आ गए माह-ओ-अंजुम ने बोसे क़दम के लिए
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