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शे'र
जिसे कहते हैं मौत इक बे-ख़ुदी की नींद है 'शाएक़'परेशानी है जिस का नाम वो है ज़िंदगी अपनी
पंडित शाएक़ वारसी
शे'र
अभी क्या है ‘क़मर’ उन की ज़रा नज़रें तो फिरने दोज़मीं ना-मेहरबाँ होगी फ़लक ना-मेहरबाँ होगा
क़मर जलालवी
शे'र
अज़ीज़ वारसी देहलवी
शे'र
कर दिया है बे-ख़ुदी ने आज इस क़ाबिल मुझेअपने पहलू में लिए लेती है ख़ुद मंज़िल मुझे
पंडित शाएक़ वारसी
शे'र
उफ़-रे बाद-ए-जोश-ए-जवानी आँख न उन की उठती थीमस्ताना हर एक अदा थी हर इ’श्वा मस्ताना था
बेदम शाह वारसी
शे'र
उन की हसरत के सिवा है कौन इस में दूसरादिल की ख़ल्वत में भी वो आ’शिक़ से शरमाते हैं क्यूँ