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जिस्म का रेशा रेशा मचले दर्द-ए-मोहब्बत फ़ाश करेइ’शक में 'काविश' ख़ामोशी तो सुख़नवरी से मुश्किल है
अब्दुल हादी काविश
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इ’श्क़ माही दे लाइयाँ अग्गीं लग्गी कौण बुझावे हूमैं की जाणाँ ज़ात इ’श्क़ जो दर दर जा झुकावे हू
सुल्तान बाहू
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आ’शिक़ इ’श्क़ माही दे कोलों फिरन हमेशा खीवे हूजींदे जान माही नूँ डित्ती दोहीं जहानीं जीवे हू
सुल्तान बाहू
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ऐ जान-ए-मन जानान-ए-मन हम दर्द-ओ-हम दरमान-ए-मनदीन-ए-मन-ओ-ईमान-ए-मन अम्न-ओ-अमान-ए-उम्मताँ
अहमद रज़ा ख़ान
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मन पाया है उस ने दिल मेरा काबा है घर अल्लाह का हैअब खोद के उस को फिकवा दे वो बुत न कहीं बुनियाद सती
ग़ुलाम नक्शबंद सज्जाद
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जिलाया मार कर क़ातिल ने मैं इस क़त्ल के क़ुर्बांहुआ दाख़िल वो ख़ुद मुझ में मैं ऐसे दख़्ल के क़ुर्बां
मरदान सफ़ी
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कहीं है आँख आ’शिक़ की कहीं दीदार-ए-जानाँ हैबहार-ए-हुस्न-इ-ताबाँ में तू ही तू है तू ही तू है
चौधरी दल्लू राम
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'आरिफ़ा' मैं ख़्वाब-ए-ग़फ़लत में रहा जब बे-ख़बरजाग कर मैं ने सुना दिलबर प्यारा फिर गया