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शे'र
ये कह कर ख़ाना-ए-तुर्बत से हम मय-कश निकल भागेवो घर क्या ख़ाक पत्थर है जहाँ शीशे नहीं रहते
मुज़्तर ख़ैराबादी
शे'र
अब उस मंज़िल पे पहुँचा है किसी का बे-ख़ुद-ए-उल्फ़तजहाँ पर ज़िंदगी-ओ-मौत का एहसास यकसाँ है
अफ़क़र मोहानी
शे'र
हर क़दम के साथ मंज़िल लेकिन इस का क्या इ’लाजइ’श्क़ ही कम-बख़्त मंज़िल-आश्ना होता नहीं
जिगर मुरादाबादी
शे'र
मिरे आँसुओं के क़तरे हैं चराग़-ए-राह-ए-मंज़िलउन्हें रौशनी मिली है तपिश-ए-दिल-ओ-जिगर से
जौहर वारसी
शे'र
हर ज़र्रा उस की मंज़िल सहरा हो या हो गुलशनक्यूँ बे-निशाँ रहे वो तेरा जो बे-निशाँ है