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लज़्ज़तें दीं ग़ाफ़िलों को क़ासिम-ए-हुशियार नेइ’श्क़ की क़िस्मत हुई दुनिया में ग़म खाने की तरह
ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़
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लज़्ज़तें दीं ग़ाफ़िलों को क़ासिम-ए-हुशियार नेइ’श्क़ की क़िस्मत हुई दुनिया में ग़म खाने की तरह
ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़
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अगर चाहूँ निज़ाम-ए-दहर को ज़ेर-ओ-ज़बर कर दूँमिरे जज़्बात का तूफ़ाँ ज़मीं से आसमाँ तक है
वली वारसी
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मैं वो साफ़ ही न कह दूँ जो है फ़र्क़ मुझ में तुझ मेंतिरा दर्द दर्द-ए-तन्हा मिरा ग़म ग़म-ए-ज़माना
जिगर मुरादाबादी
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ये आदाब-ए-मोहब्बत है तिरे क़दमों पे सर रख दूँये तेरी इक अदा है फेर कर मुँह मुस्कुरा देना
अब्दुल हादी काविश
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तुझ से मिलने का बता फिर कौन सा दिन आएगाई’द को भी मुझ से गर ऐ मेरी जाँ मिलता नहीं
अकबर वारसी मेरठी
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नूह का तूफ़ाँ तो कुछ दिन रह के आख़िर हो गयाऔर मिरी कश्ती अभी तक इश्क़ के दरिया में है