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कवि दिलदार
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पुरनम इलाहाबादी
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बा-होश वही हैं दीवाने उल्फ़त में जो ऐसा करते हैंहर वक़्त उन्ही के जल्वों से ईमान का सौदा करते हैं
फ़ना बुलंदशहरी
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न होती दिल में उल्फ़त अपनी क्यूँ क़ातिल के अबरू कीकि मुझ को तो क़तील-ए-ख़ंजर-ए-सफ़्फ़ाक होना था
अर्श गयावी
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कश्ती है सुकूँ की मौजों में इतना ही सहारा काफ़ी हैमेरे लिए तो ऐ जान-ए-जहाँ बस नाम तुमहारा काफ़ी है
शाह तक़ी राज़ बरेलवी
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ख़ुदा शाहिद है इस शम्‘अ-ए-फ़रौज़ाँ की ज़िया तुम होमैं हरगिज़ ये नहीं कहता तुमहें मेरे ख़ुदा तुम हो
शाह तक़ी राज़ बरेलवी
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ये राज़ की बातें हैं इस को समझे तो कोई क्यूँकर समझेइंसान है पुतला हैरत का मजबूर भी है मुख़्तार भी है
अहक़र बिहारी
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ये नर्म-ओ-नातवाँ मौजें ख़ुदी का राज़ क्या जानेंक़दम लेते हैं तूफ़ाँ अज़्मत-ए-साहिल समझते हैं
जिगर मुरादाबादी
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आशिक़ राज़ माही दे कोलों, होण कदीं न वांदे हूनींद हराम तिन्हाँ ते जेहड़े ज़ाती इस्म कमांदे हू
सुल्तान बाहू
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क़ैसर शाह वारसी
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कूचे में तिरे ऐ जान-ए-ग़ज़ल ये राज़ खुला हम पर आ करग़म भी तो इनायत है तेरी हम ग़म का मुदावा भूल गए