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मा’सूमी-ए-जमाल को भी जिन पे रश्क हैऐसे भी कुछ गुनाह किए जा रहा हूँ मैं
रश्क-ए-गुलशन हो इलाही ये क़फ़सये सदा मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार की है
क्यूँ न रश्क आए गुल-ए-सुर्ख़ पे शबनम को देखकि मेरा अश्क तेरी कान का गौहर न हुआ
कोई रश्क-ए-गुलिस्ताँ है तो कोई ग़ैरत-ए-गुलशनहुए क्या क्या हसीं गुलछर्रः पैदा आब-ओ-गिल से
तेरे हुस्न की देख तजल्ली ऐ रश्क-ए-हूरसूरज कहूँ कि चाँद कि नूर-ए-ख़ुदा कहूँ
सारे आ'लम में तेरी ख़ुश्बू हैऐ मेरे रश्क-ए-गुल कहाँ तू है
गर रही यूँही गुल-फ़िशानी-ए-अश्कजा-ब-जा रश्क-ए-इरम कीजिएगा
उसे चाँद-सूरज से तश्बीह क्या दूँजो है रश्क-ए-शम्स-ओ-क़मर अल्लाह अल्लाह
मर मिटे तेरी मोहब्बत मैं मोहब्बत वालेउन पे रश्क आता है ये लोग हैं क़िस्मत वाले
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