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इस आईना-रू के वस्ल में भी मुश्ताक़-ए-बोस-ओ-कनार रहेऐ आ’लम-ए-हैरत तेरे सिवा ये भी न हुआ वो भी न हुआ
शाह नियाज़ अहमद बरेलवी
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मेरी सुंदरता के गहने छीन के वो कहता है मुझ सेवो इंसान बहुत अच्छा है जो हर-हाल में ख़ुश रहता है
वासिफ़ अली वासिफ़
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पस-ए-मुर्दन इरादा दिल में था जो कू-ए-क़ातिल कालहद में ख़ुश हुआ मैं नाम सुनकर पहली मंज़िल का
ग़ाफ़िल लखनवी
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बढ़ के तूफ़ाँ में सहारा मौज-ए-तूफ़ाँ क्यूँ न देमेरी कश्ती का ख़ुदा है ना-ख़ुदा कोई नहीं
पुरनम इलाहाबादी
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ख़ून-ए-नाहक़ की शहादत के लिए काफ़ी है येदामन-ए-क़ातिल पे जो धब्बे लहू के जम रहे
मिरर्ज़ा फ़िदा अली शाह मनन
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ग़म-ए-जानाँ ग़म-ए-अय्याम के साँचे में ढलता हैकि इक ग़म दूसरे का चारागर है हम न कहते थे
वासिफ़ अली वासिफ़
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ग़म-ए-जानाँ ग़म-ए-अय्याम के साँचे में ढलता हैकि इक ग़म दूसरे का चारागर है हम न कहते थे
वासिफ़ अली वासिफ़
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अहक़र बिहारी
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हश्र के दिन इम्तिहाँ पेश-ए-ख़ुदा दोनों का हैलुत्फ़ है उनकी जफ़ा मेरी वफ़ा से कम रहे
मिरर्ज़ा फ़िदा अली शाह मनन
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ऐ 'तुराब' जब गुल-बदन के दर्द सूँ गिर्यां कियादामन-ए-गुल पर मिरा हर अश्क दुर्दाना हुआ