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मिरी आरज़ू के चराग़ पर कोई तब्सिरा भी करे तो क्याकभी जल उठा सर-ए-शाम से कभी बुझ गया सर-ए-शाम से
अज़ीज़ वारसी देहलवी
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मिरी आरज़ू के चराग़ पर कोई तब्सिरा भी करे तो क्याकभी जल उठा सर-ए-शाम से कभी बुझ गया सर-ए-शाम से
अज़ीज़ वारसी देहलवी
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अज़ीज़ वारसी देहलवी
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अ’ज़्म-ओ--इस्तिक़लाल है शर्त-ए-मुक़द्दम इशक मेंकोई जादः क्यूँ न हो इंसान उस पर जम रहे
कामिल शत्तारी
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मुर्शिद मक्का तालिब हाजी का’बा इ’श्क़ बड़ाया हूविच हुज़ूर सदा हर वेले करिए हज सवाया हू
सुल्तान बाहू
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आग लगी वो इशक की सर से मैं पाँव तक जलाफ़र्त-ए-ख़ुशी से दिल मिरा कहने लगा जो हो सो हो
अब्दुल हादी काविश
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एहसास के मय-ख़ाने में कहाँ अब फिक्र-ओ-नज़र की क़िंदीलेंआलाम की शिद्दत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए
साग़र सिद्दीक़ी
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तुम को कहते हैं कि आशिक़ की फ़ुग़ाँ सुनते होये तो कहने ही की बातें हैं कहाँ सुनते हो
मीर मोहम्मद बेदार
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मेहर-ए-ख़ूबाँ ख़ाना-अफ़रोज़-ए-दिल-अफ़सुर्दः हैशो'ला आब-ए-ज़ि़ंदगानी-ए-चराग़-ए-मुर्दः है
मीर मोहम्मद बेदार
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कहीं है आँख आ’शिक़ की कहीं दीदार-ए-जानाँ हैबहार-ए-हुस्न-इ-ताबाँ में तू ही तू है तू ही तू है
चौधरी दल्लू राम
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आ'शिक़-ए-जाँ-निसार को ख़ौफ़ नहीं है मर्ग कातेरी तरफ़ से ऐ सनम जौर-ओ-जफ़ा जो हो सो हो
मीर मोहम्मद बेदार
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हरे कपड़े पहन कर फिर न जाना यार गुलशन मेंगुलू-ए-शाख़-ए-गुल से ख़ून टपकेगा शहादत का