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फ़ना बुलंदशहरी
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मुर्शिद मक्का तालिब हाजी का’बा इ’श्क़ बड़ाया हूविच हुज़ूर सदा हर वेले करिए हज सवाया हू
सुल्तान बाहू
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गर तालिब-ए-अल्लाह हुआ है इ’श्क़ को पहले पैदा करप्रेम की चक्की में दिल अपना पीस पिसा कर मैदा कर
कवि दिलदार
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अब्र-ए-दूद-ए-दिल जो घर को छाए रहता है मेरेरहती है फ़ुर्क़त की शब बाहर ही बाहर चाँदनी
आसी गाज़ीपुरी
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चश्म नर्गिस बन गई है इश्तियाक़-ए-दीद मेंकौन कहता है कि गुलशन में तिरा चर्चा नहीं