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शे'र
मैं ज़र्रा था मुझे ज़र्रे से आफ़्ताब कियाफिर अब न ज़र्रा बना आफ़्ताब कर के मुझे
क़ाज़ी ख़ालीलुद्दीन हसन
शे'र
वो उ’रूज-ए-माह वो चाँदनी वो ख़मोश रात वो बे-ख़ुदीवो तसव्वुरात की सरख़ुशी तिरे साथ राज़-ओ-नियाज़ में