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मैं ज़र्रा था मुझे ज़र्रे से आफ़्ताब कियाफिर अब न ज़र्रा बना आफ़्ताब कर के मुझे
हर ज़र्रा उस की मंज़िल सहरा हो या हो गुलशनक्यूँ बे-निशाँ रहे वो तेरा जो बे-निशाँ है
ख़ुदा गो ज़र्रे ज़र्रे से अयाँ हैमगर ज़र्रा यहाँ कुछ भी नहीं है
ज़र्रे को ले के फिरता है ये आसमान मेंहै 'इश्क़ से 'अज़ीम कोई शय जहान में
ज़र्रे को आफ़ताब का हमता बना दिया'इश्क़-ए-नबी ने क़तरे को दरिया बना दिया
वस्ल ऐ’न दूरी है बे-ख़ुदी ज़रूरी हैकुछ भी कह नहीं सकता माजरा जुदाई का
कुछ उफ़ुक़ है नूर-आगीं कुछ शफ़क़ है लाल लालज़र्रा ज़र्रा आईना है हुस्न-रू-ए-ख़ाक का
जबीन-ए-यार से अफ़शाँ की देखी ज़र्रा अफ़्शानीख़ुशी के फूल झड़ते हैं चराग़-ए-माह-ए-अनवर से
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