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कलाम
जुनूँ वज्ह-ए-शिकस्त-ए-रंग-ए-महफ़िल होता जाता हैज़माना अपने मुस्तक़बिल में दाख़िल होता जाता है
सीमाब अकबराबादी
कलाम
यही है फ़त्ह-ए-हक़ीक़त यही शिकस्त-ए-मजाज़कि अपने हुस्न-ए-निहानी पे ख़ुद फ़िदा हो जा
मुनव्वर लखनवी
कलाम
तुझे पसंद है जब से मिरी शिकस्ता-दिलीमुझे भी भाती है उस ज़ुल्फ़-ए-पुर-शिकन की शिकस्त
शाह तुराब अली क़लंदर
कलाम
तिरे दिल के टूटने पर है किसी को नाज़ क्या क्यातुझे ऐ 'जिगर' मुबारक ये शिकस्त-ए-फ़ातेहाना