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कलाम
मिरे होते हुए कोई शरीक-ए-इम्तिहाँ क्यूँ हो
तिरा दर्द-ए-मोहब्बत भी नसीब-ए-दुश्मनाँ क्यूँ हो
बेदम शाह वारसी
कलाम
तिरी फ़ितरत अमीं है मुम्किनात ज़िंदगानी की
जहँ के जौहर मुज़्मर का गोया इम्तिहाँ तो है
अल्लामा इक़बाल
कलाम
ज़िंदगी में आ गया जब कोई वक़्त-ए-इम्तिहाँ
इस ने देखा है 'जिगर' बे-इख़्तियाराना मुझे
जिगर मुरादाबादी
कलाम
‘कामिल’-ए-ख़स्ता-जाँ तिरा बंदा-ए-ना-तवाँ तिरा
लाएक़-ए-रहम है शहा क़ाबिल-ए-इम्तिहाँ नहीं
कामिल शत्तारी
कलाम
सारे जहाँ के फ़लसफ़े हेच हैं उस के सामने
इ'श्क़ का इम्तिहाँ न ले अ'क़्ल को आज़माए जा
सीमाब अकबराबादी
कलाम
करूँ फिर अ'र्ज़-ए-जल्वा हौसला इतना कहाँ मेरा
फ़राज़-ए-तूर पर हो तो चुका है इम्तिहाँ मेरा