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कलाम
वो तबस्सुम था कि बर्क़-ए-हुस्न का ए'जाज़ थाकाएनात-ए-जान-ओ-दिल ज़ेर-ओ-ज़बर होने लगी
ग़ुलाम मोईनुद्दीन गिलानी
कलाम
पीर नसीरुद्दीन नसीर
कलाम
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँरोएँगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
कलाम
सहबा अकबराबादी
कलाम
माहिरुल क़ादरी
कलाम
क्या कहें मिल्लत-ओ-दीं कुफ़्र है ईमाँ अपनापेश-ए-बुत-ए-सज्दा है और दैर है ऐवाँ अपना
तसद्दुक़ अ’ली असद
कलाम
ओ सनम तेरे न आने की क़सम खाता हूँ मैंइस दिल-ए-बेताब को दिन-रात समझाता हूँ मैं