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कलाम
की होया बुत दूर गया दिल हरगिज़ दूर न थीवे हूसै कोहाँ ते वसदा मुर्शिद विच हुज़ूर दिसीवे हू
सुल्तान बाहू
कलाम
कभी का'बे में पाता हूँ कभी बुत-ख़ाने के अंदरलगा के तुझ से दिल फिरता हूँ मारा-मारा मैं दर-दर
फ़राज़ वारसी
कलाम
का’बा-ए-अबरू दिखा औ बुत ख़ुदा के वास्तेशक्ल-ए-मिज़्गाँ हाथ उठाए हों दु'आ के वास्ते
ख़वाजा वज़ीर लखनवी
कलाम
उस बुत-ए-काफ़िर के दर पे अब तो जाना ही पड़ाहो गया है बस ख़फ़ा मुझ को मनाना ही पड़ा
नियाज़ वज़िरबादी
कलाम
तू हरम में जिस को है ढूँढता मुझे बुत-कदा वो मिल गयातुझे क्या मलाल है ज़ाहिदा ये नज़र नज़र की तलाश है