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कलाम
जनाब-ए-वा'इज़ हमारी लग़्ज़िश हमारी हद तक वबाल होगीक़दम तुम्हारे जो डगमगाएँ तो डगमगा जाएगा ज़माना
कामिल शत्तारी
कलाम
मैं महव-ए-तौफ़ पैहम था लिए पैमाना का'बे मेंमआ'ज़-अल्लाह वो मेरी लग़्ज़िश-ए-मस्ताना का’बे में
नुशूर वाहिदी
कलाम
इतनी रिफ़’अत बख़्श दे ऐ लग़्ज़िश-ए-मस्ताना आजउड़ के कू-ए-यार तक पहुँचे मिरा अफ़्साना आज
मंज़ूर आरफ़ी
कलाम
सहारा मिल गया है जब से उन की दस्त-गीरी काक़दम दानिस्ता लग़्ज़िश से भी अक्सर डगमगाते हैं
कामिल शत्तारी
कलाम
अगरचे नफ़्स-ए-अम्मारा में ये जुम्बिश नहीं होतीतो हरगिज़ ख़ुल्द में आदम से यूँ लग़्ज़िश नहीं होती