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कलाम
तेरे क़ुर्बाँ, तिरी इस याद के लम्हे के निसारजिसने शब-भर मुझे मसरूफ़-ए-दुआ रक्खा है
पीर नसीरुद्दीन नसीर
कलाम
ज़रा और मुस्कुरा लूँ दिल-ओ-जाँ शिकार-ए-ग़म हैंकि मसर्रतों के लम्हे मेरी ज़िंदगी में कम हैं