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कलाम
ये तफ़्सील-ए-मोहब्बत है ये उल्फ़त का ख़ुलासा हैसुलगती है उधर शमएँ' इधर जलते हैं परवाने
मंज़ूर आरफ़ी
कलाम
सहर ने ले के अंगड़ाई तिलिस्म-ए-नाज़-ए-शब तोड़ाफ़लक पर हुस्न की शमएँ उठीं तारों की महफ़िल से
एहसान दानिश
कलाम
जू-ए-ख़ूँ आँखों से बहने दो कि है शाम-ए-फ़िराक़मैं ये समझूँगा कि शमएँ दो फ़रोज़ाँ हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
कलाम
दिल में लगा के उन की लौ कर दे जहाँ में नश्र-ए-ज़ौशमएँ' तो जल रही हैं सौ बज़्म में रौशनी नहीं