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कलाम
न सवाल-ए-वस्ल न अर्ज़-ए-ग़म न हिकायतें न शिकायतेंतिरे अहद में दिल-ए-ज़ार के सभी इख़्तियार चले गए
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
कलाम
आरज़ू-ए-वस्ल-ए-जानाँ में सहर होने लगीज़िंदगी मानिंद-ए-शम्अ' मुख़्तसर होने लगी
ग़ुलाम मोईनुद्दीन गिलानी
कलाम
तालिब-ए-वस्ल-ए-यार हूँ शौक़-ए-जिगर को क्या करूँहिज्र से बे-क़रार हूँ सूद-ओ-ज़रर को क्या करूँ
अज्ञात
कलाम
हम वस्ल में ऐसे खोए गए फ़ुर्क़त का ज़माना भूल गएसाहिल की ख़ुशी में मौजों का तूफ़ान उठाना भूल गए
कामिल शत्तारी
कलाम
न सवाल है तख़्त-ओ-ताज का न क़सम से ज़र का ख़याल हैमिरे चारा-गर मिरे मेहरबाँ तिरे एक का सवाल है