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कलाम
मय-ए-वहदत से ओ साक़ी लबालब एक साग़र देमैं बंदा तेरा हो जाऊँ तू मतवाला मुझे कर दे
शाह तुराब अली क़लंदर
कलाम
ये मकाँ से ता-सर-ए-ला-मकाँ उसी इक वजूद का ख़्वाब हैये ज़ुहूर दोनों जहान का रुख़ यार ही की नक़ाब है
ग़ौसी शाह
कलाम
अगर मंज़ूर है पीना मय-ए-वहदत के साग़र कालिया कर नाम हर दम हज़रत साक़ी-ए-कौसर का