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'ख़ुसरौ' का गुर आत्मा 'वासिफ़' गुर की बातअमर करे परमात्मा माटी देस-बिदेस
इक उ'म्र हो गई कि इक़ामत सफ़र में हैनक़्शा मगर वतन का अभी तक नज़र में है
ख़ुदी के साज़ में है उ'म्र-ए-जावेदाँ का सुराग़ख़ुदी के सोज़ से रौशन हैं उम्मतों के चराग़
तमाम उ'म्र कुछ ऐसे ख़याल-ए-यार रहाकि बा'द-ए-मर्ग भी हर ज़र्रा बे-क़रार रहा
'उम्र जल्वों में बसर हो ये ज़रूरी तो नहींहर शब ग़म की सहर हो ये ज़रूरी तो नहीं
हम लोटते हैं वो सो रहे हैंक्या नाज़-ओ-नियाज़ हो रहे हैं
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