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कलाम
फ़िराक़ गोरखपुरी
कलाम
ग़म में जीता हूँ तिरे हिज्र में मरता हूँ मैंख़ुद ही बीमार हूँ और ख़ुद ही मसीहा हूँ में
आक़िल रेवाड्वी
कलाम
याद उन की दिल में रहती है और हिज्र की रातें होती हैंआँखें यूँ झम-झम रोती हैं जैसे बरसातें होती हैं