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कलाम
ग़ुंच-सा लब बंद है शोर-ए-‘अनादिल दिल में हैलब पे है मोहर-ए-सुकूत इक शोर बरपा दिल में है
ख़्वाजा हमीदुद्दीन अहमद
कलाम
ग़ुंचे कहते हैं कि क्या जल्द गुज़रती है बहारमुस्कुरा लेने की फ़ुर्सत भी गुलिस्ताँ में नहीं
अमीर मीनाई
कलाम
किसे सदमा नहीं रंग-ए-चमन की बे-सबाती काचटकते हैं जो ग़ुंचे अस्ल में फ़रियाद करते हैं
जलील मानिकपुरी
कलाम
ता-बके ऐ ना-शगुफ़्ता ग़ुंचे ये मोहर-ए-सुकूतकुछ तो रंग-ए-बे-सबाती पर चमन के खिल के खुल