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दिल से तिरी निगाह जिगर तक उतर गईदोनों को इक अदा में रज़ा-मंद कर गई
नाला जुज़ हुस्न-ए-तलब ऐ सितम-ईजाद नहींहै तक़ाज़ा-ए-जफ़ा शिकवा-ए-बेदाद नहीं
कोई उम्मीद बर नहीं आतीकोई सूरत नज़र नहीं आती
कब वो सुनता है कहानी मेरीऔर फिर वो भी ज़बानी मेरी
तेरे तौसन को सबा बाँधते हैंहम भी मज़मूँ की हवा बाँधते हैं
मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुएजोश-ए-क़दह से बज़्म चराग़ाँ किए हुए
कहूँ जो हाल तो कहते हो मुद्दआ' कहिएतुम्हीं कहो कि जो तुम यूँ कहो तो क्या कहिए
मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहींसिवाए ख़ून-ए-जिगर सो जिगर में ख़ाक नहीं
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तककौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसेऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे
इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोईमेरे दुख की दवा करे कोई
तू दोस्त कसू का भी सितमगर न हुआ थाऔरों पे है वो ज़ुल्म कि मुझ पर न हुआ था
कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ सेजफ़ाएँ कर के अपनी याद शरमा जाए है मुझ से
हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैंमक़्दूर हो तो साथ रखूँ नौहागर को मैं
चाहिए अच्छों को जितना चाहिएये अगर चाहें तो फिर क्या चाहिए
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या हैतुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है
सादगी पर उस की मर जाने की हसरत दिल में हैबस नहीं चलता कि फिर ख़ंजर कफ़-ए-क़ातिल में है
फ़रियाद की कोई लय नहीं हैनाला पाबंद-ए-नय नहीं है
देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाए हैमैं उसे देखूँ भला कब मुझ से देखा जाए है
हवस को है नशात-ए-कार क्या क्यान हो मरना तो जीने का मज़ा क्या
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